नई दिल्ली। राष्ट्रपति श्री राम नाथ कोविन्द ने लोकसभा में कहा कि उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार’ से सम्मानित होने पर, श्रीमती नजमा हेपतुल्ला, श्री हुकुमदेव नारायण यादव, श्री गुलाम नबी आज़ाद, श्री दिनेश त्रिवेदी और श्री भर्तृहरि महताब, इन सभी को, मैं बधाई देता हूँ। इन सभी ने, संसदीय गरिमा को अक्षुण्ण रखते हुए, अपने ज्ञान और विवेक के द्वारा, संसद की कार्यवाही को समृद्ध किया है।
राष्ट्रपति कोविन्द ने इस मौके पर कहा किभारतीय लोकतन्त्र की आत्मा हमारी संसद में बसती है। संभवतः इसीलिये संसद को लोकतन्त्र का मंदिर भी कहा जाता है। सांसद, केवल किसी एक दल या संसदीय क्षेत्र के प्रतिनिधि नहीं होते हैं, वे हमारे संवैधानिक आदर्शों के संवाहक होते हैं। भारत के संविधान की उद्देशिका या preamble में जनता की संप्रभुता स्पष्ट की गई है, जिसमे कहा गया है कि, “हम, भारत के लोग …….. इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं”। ‘हम भारत के लोग’ ही सचमुच में ‘लोक’ हैं, जो हमारे लोकतन्त्र की शक्ति के स्रोत हैं।
यह सेंट्रल हॉल, हमारी संसद के गौरवशाली इतिहास के केंद्र में रहा है। यह हॉल हमारे संविधान के निर्माण का साक्षी है। यहाँ संविधान सभा की ग्यारह सत्रों की बैठकें हुईं, जो कुल मिलाकर एक सौ पैंसठ दिन चलीं। 14-15 अगस्त, 1947 की मध्य-रात्रि के समय, इसी सेंट्रल हॉल में, संविधान सभा को पूर्ण प्रभुसत्ता प्राप्त हो गई थी। और जैसा कि हम सभी जानते हैं, 26 नवंबर, 1949 को इसी सेंट्रल हॉल में ‘भारत का संविधान’ अंगीकृत किया गया था। इस सेंट्रल हॉल में त्याग और सदाचरण के उच्चतम आदर्श प्रस्तुत करने वाली अनेक विभूतियाँ उपस्थित रही हैं। और इसी हॉल में, उन्होने न्याय, समानता, गरिमा और बंधुता के सर्वोच्च आदर्शों को समाहित करने वाले हमारे संविधान की रचना की है। इस प्रकार, यहाँ सेंट्रल हॉल में उपस्थित सांसदों के समक्ष, एक महान परंपरा को आगे ले जाने की ज़िम्मेदारी है।
संविधान सभा में, बाबासाहेब आंबेडकर ने, 25 नवंबर, 1949 को, जो भाषण दिया था, वह आज भी, संसदीय दायित्वों को निभाने में, हम सबको, स्पष्ट मार्गदर्शन प्रदान करता है। उन्होने कहा था कि अब हमारे पास विरोध व्यक्त करने के संवैधानिक तरीके उपलब्ध हैं, अतः संविधान विरोधी ‘Grammar of Anarchy’ से बचना जरूरी है। उन्होने कहा था कि मात्र राजनैतिक लोकतन्त्र से संतुष्ट होना अनुचित होगा। सामाजिक लोकतन्त्र की स्थापना भी करनी होगी। बाबासाहेब की इच्छा थी कि ‘जनता के लिए सरकार’ चलाने के रास्ते में जो भी अड़चनें पैदा हों, उनका खात्मा करने के अभियान में, जरा भी कमजोरी नहीं आनी चाहिए। स्वतन्त्रता, समता, और भाई-चारा को वे एक दूसरे पर निर्भर मानते थे। उनकी दृढ़ मान्यता थी, कि इन तीनों में किसी एक के अभाव में बाकी दोनों अर्थहीन हो जाते हैं।
संसद परिसर में, अनेक स्थानों पर, हमारी विरासत को व्यक्त करने वाले आदर्श अंकित हैं। इस सेंट्रल हॉल के प्रवेश द्वार के पास ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का महान संदेश लिखा हुआ है। लोकसभा की भीतरी लॉबी के प्रवेश द्वार पर जो श्लोक लिखा हुआ है उसका अर्थ है, “जो भी इस सभा के सभासद हैं, उन्हे ऊर्जा और स्फूर्ति प्राप्त हो, और वे संयम से परिपूर्ण हों”।
संसद में निर्वाचन के पश्चात, आप सब जो पहला कार्य करते हैं, वह होता है, शपथ लेना। वह शपथ पूरे कार्यकाल के लिए प्रभावी होती है। अपनी शपथ या प्रतिज्ञा को हर हाल में निभाना, हमारी भारतीय परंपरा है। संविधान ही हम सबके लिए ‘गीता’ है, ‘कुरान’ है, ‘बाइबल’ है, ‘गुरुग्रन्थ साहब’ है। हम सभी भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा, तथा अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं।
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