रांची: लोकमंथन का उद्घाटन करते हुये उपराष्ट्रपति श्री एम. वेंकैया नायडु ने कहा कि कोई भी राष्ट्र- उसकी जनता, जन संस्कारों और जनांकांक्षाओं से बनता है। अत: समय-समय पर जन संस्कारों और आकांक्षाओं का विमर्श और विश्लेषण राष्ट्रीय जीवन को जीवंत बनाये रखने के लिये आवश्यक है।
भारत की समृद्ध संवाद परंपरा का जिक्र करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि ज्ञान की प्रामाणिकता और सत्यान्वेषण के लिए संवाद एक सभ्य स्वीकार्य पद्धति है। भारतीय परंपरा में ऐसे कई संवादों का प्रसंग मिलता है। उपराष्ट्रपति ने कहा कि इस लोक मंथन से न केवल नये विचारों का सर्जन होगा – कुछ पुरानी भ्रांतियां भी टूटेंगी।
इस अवसर पर उपराष्ट्रपति ने कहा कि लंबे समय तक औपनिवेशिक गुलामी ने न सिर्फ हमारी राजनीतिक आदर्शों और संस्थाओं को समाप्त किया है बल्कि उनके नैसर्गिक विकास को भी विकृत कर दिया है। उन्होंने कहा कि लंबी गुलामी समाज के अपने इतिहास बोध को समाप्त कर देती है और सामुदायिक रचनात्मक मेधा को नष्ट कर देती है। अत: आवश्यक है कि समाज स्वयं अपना इतिहास बोध विकसित करे।
भारतीय समाज में समाज सुधारों की परंपरा का जिक्र करते हुए उपराष्ट्रपति ने स्मरण दिलाया कि सदियों के राजनैतिक विप्लव और आर्थिक दोहन के कारण सामाजिक विपन्नता दुर्दशा के बावजूद, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और वैचारिक सुधार और सौहार्द की प्रक्रिया सतत चलती रही। शंकराचार्य से विवेकानंद तक दार्शनिक समाज सुधारकों की लंबी श्रृखंला रही है जिन्होंने राजनैतिक और आर्थिक चुनौतियों में भी भारतीय समाज को आध्यात्मिक पुनर्जागरण और सामाजिक सौहार्द के लिए प्रेरित किया।
उन्होंने कहा कि यह आवश्यक है कि दीर्घकालीन राजनैतिक आधिपत्य के कारण आयी सामाजिक कुरीतियों का अध्ययन किया जाये और उनका प्रतिकार किया जाय। लंबे औपनिवेशिक आधिपत्य के कारण हुए समाज के आर्थिक दोहन का सामाजिक और जातीय संरचना और संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ा, इसका गंभीर अध्ययन होना चाहिए। उपराष्ट्रपति ने कहा कि हमारा स्वाधीनता संग्राम, राजनैतिक स्वतंत्रता ही नहीं अपितु समाज सुधार का आंदोलन भी था। इसमें अस्पृश्यता का विरोध, जातिवाद की कुरीतियों का विरोध, सामुदायिक स्वच्छता, आर्थिक स्वावलंबन, जमींदारी का विरोध, शिक्षा सुधार, महिला सशक्तिकरण, अहिंसा आदि प्रगतिशील मुद्दों पर जन समर्थन और जन जागरण का आहृवाहन था।
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