Sahil Saini
गुरु शिष्य परंपरा भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही है। हमने गुरु को माता-पिता से ऊपर भगवान का दर्जा दिया है। इतिहास हमारी इस परंपरा का गवाह रहा है। शास्त्रों में भी एकलव्य-द्रोणाचार्य, कृष्ण-अर्जुन जैसे गुरु शिष्य के कई उदाहारण हैं। भारतीय रघुवंश ने अगर चंद्रगुप्त मौर्य को पाया तो उसमें उनके गुरु चाण्क्य की सबसे बड़ी भूमिका थी। वरना एक आदिवासी बालक कभी चंद्रगुप्त मौर्य नहीं बन पाता।
वक्त बदलने के साथ आज गुरु-शिष्य परंपरा भी बदल गई है। गुरुकुलों का स्थान आज हाइटेक स्कूलों ने ले लिया है। भोजपत्रों और खड़ी के कलम का स्थान कंप्यूटर स्क्रीन और की-बोर्ड ने ले लिया है। गुरु के पैर छूकर आशीर्वाद लेने की जगह महंगे आकर्षक कार्ड और मोबाइल एसएमएस ने ले ली है। कक्षाओं से अलग आज शिक्षक ऑनलाइन पढ़ाने लगे हैं। किताबी ज्ञान की शिक्षा से बढ़कर गुरु आज शिष्यों को टेक्नो फ्रेंडली शिक्षा की सलाह भी दे रहे हैं। कुछ शिक्षकों को राष्ट्रपति की ओर से सम्मानित करने का फैसला भी यही दिखाता है। कल के गुरु से अलग इन गुरुओं की भूमिकाएं अलग सी दिखती हैं पर उनका उद्देश्य एक है – “शिष्य के उज्ज्वल भविष्य का निर्माण!”
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