उपेन्द्र कुमार पासवान
16 अप्रैल 2020
हां मैं भारत ऐसा देश की बात कर रहा हूं जहां बड़े-बड़े उद्योगपति बड़े-बड़े बंगले मेट्रो सिटी चमचमाती इमारते खड़ी है। सर के ऊपर से गुजरने वाला बड़े-बड़े ब्रिज जब ये सारी चीजों को देखते है तो आंख से आंसू छलक जाते हैं हमारे जीवन को आरामदायक और खललरहित बनाने वाले इन सारे ढाँचों को किसने बनाया? इन्हीं मेहनतकश मजदूरों, कामगारों ने जो आज ऐसे ही किसी एक पुल के नीचे शरण तलाश रहे हैं।
असल में ये हम जैसे स्वार्थी, मक्कार और कृतघ्न लोगों से भरी इस दुनिया में अपनी जगह तलाश रहे हैं। इन पुलों पर लटकने वाली सरकारी स्कीमों के बड़े बड़े बैनरों का खोखलापन ये दृश्य उजागर कर रहा है। राज्य अपनी पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था दावों, आर्थिक महाशक्ति बनने के शिफूगों, बंदूकों और तोपों के जख़ीरों के बावजूद भी अपने लोगों का पेट भरने में, उन्हें एक सम्मानजनक जीवन प्रदान करने में असमर्थ है। आज जो लोग इस स्थिति में सड़कों पर सोने को लाचार हैं, उन्होंने हमारे घर बनाए हैं, सड़के-इमारतें बनाई हैं, स्कूल-अस्पताल बनाऐं हैं, खेतों में मजूरी कर अनाज उगाया है, फैक्ट्रि़यों में काम कर सामान बनाया है।
यही मेहनतकश वर्ग है जिसके खून और पसीने से हमारा आराम सना है फिर भी हम कितने बेशर्म हैं कि अपने एसी वाले कमरे में बैठकर तीन वक्त का खाना खाकर समझते हैं कि इंसानियत के प्रति अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया। सरकारों से सवाल करना, उनसे जवाब मांगना तो दूर हम ये तस्वीरे देखना भी पसंद नहीं करते। लोग कहते हैं ये लोग ऐसे कहीं भी कैसे सो सकते हैं! शहर की ख़ूबसूरती बिगड़ती है, इन्हें यहाँ से हटा देना चाहिए। इन सवालों से क्रूरता की बू आती है।
अगर आज भी जनता ऐसे हालातें में जीने को मजबूर है तो राज्य की पूरी ताकत बेकार है। क्यों नहीं अभी बंद पड़े शॉपिंग मोल और मेट्रो स्टेशन जो इन्होंने ही अपने श्रम से बनाए हैं, उन्हें इन्हीं के लिए खोल दिया जाए? जब विश्वयुद्ध के दौरान सबवेज़ को बंकरों केे रूप में प्रयोग किया जा सकता है, तो ये तो महामारी है। लेकिन हमेशा की तरह सरकारों की प्राथमिकता शॉपिंग कोम्पलेक्स के मालिक ही रहेंगे, ग़रीब नहीं।
ख़ैर अब कह रहे हैं कि हमने उन्हें पुल से उठाकर शेल्टर में भेज दिया है। लेकिन असल सवाल तो ये था कि ये यहाँ पुलों के नीचे, फुटपाथ पर, कैंपों और शेल्टर होम में रहने को मजबूर ही क्यों हैं?
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