04 July 2020, Anushtha Singh
देश में कोरोना महामारी के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए तमाम तरह के सवाल जो लोगों के मन में एक चिंता के साथ जन्म ले रही है. इस महामारी के बाद कैसे ज़िन्दगी उस विकास रूपी पटरी पर दौड़ेगी जिसकी रूपरेखा आज़ादी के बाद तमाम सरकारे
तैयार करने में लगी थी.
इस समय हिंदुस्तान हीं नहीं पूरी दुनिया के लिए इस लड़ाई से पार पाना इतना आसान नहीं है चाहे बात गरीबी की हो या अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की हो. इन्हीं तमाम सवालों को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय संबोधन में जैसे ही ग़रीबों/श्रमिकों को और पाँच महीनों तक मुफ़्त अनाज देने का ज़िक्र आया, तो बात समझ में आने लगी.
फिर तो प्रधानमंत्री ने बिहार के मशहूर पर्व छठ का नाम लेते हुए इस योजना को उस समय तक चलाने की बात कर के मतलब साफ़ कर ही दिया. ज़ाहिर है कि पाँच महीने बाद यानी नवंबर तक बिहार में विधानसभा के चुनाव संपन्न हो जाएँगे और तब यह मुफ़्त राशन वाली योजना भी समाप्त हो जाएगी.
कोरोना के कारण उपजे हालात से इस ग़रीब कल्याण योजना को जोड़ना भले ही प्रधानमंत्री का प्रत्यक्ष भाव रहा हो, लेकिन संदेश का लक्ष्य चुनावी भी था और इससे नज़र हटाया नहीं जा सकता है.
बिहार के ग़रीब मज़दूरों में लॉकडाउन की वजह से जो पीड़ा पल रही है, उस पर चुनाव को देखते हुए मरहम लगाने के अभी और भी प्रयास हो सकते हैं. लेकिन इसके लिए महज आपको और इंतज़ार करना पड़ सकता है.
लेकिन यहाँ ग़रीबों, श्रमिकों और किसानों के बीच सरकारी राशन वितरण और खाद-पानी आपूर्ति से संबंधित इतनी समस्याएँ हैं, कि थोड़े मुफ़्त अनाज जैसे प्रलोभन शायद ही असरदार हों. बस कुछ दिनों का इंतज़ार है इसका भी सच्च सामने जरूर आएगा. आज भी ग्रामीण भारत में तमाम तरह सवाल जो लोगों को उनके हक से जुदा करते रहते हैं जैसे कार्ड से ले कर बीपीएल-सूची तक में इतनी सारी गड़बड़ियाँ हैं कि अनेक सरकारी राशन वितरण केंद्रों पर मारपीट जैसी स्थिति बनी रहती है. ज़रूरतमंदों के नाम सूची से, और माल स्टॉक से ग़ायब हो जाते हैं.
उधर खाद की क़िल्लत और डीज़ल-मूल्य वृद्धि का ये आलम है कि किसान दिन-रात सरकार को कोसते रहते हैं. लेकिन इस पर नज़र नहीं तो सरकार की जाती है और ना ही स्थानीय प्रशासन की इस पर विचार और मंथन जरूर राज्य और केंद्र सरकार करती है पर सिर्फ और सिर्फ कागजों और सरकारी फाइलों में किसानों और गरीबों का दर्द सिमट कर रह जाता है.
प्रधानमंत्री अपने संबोधन में चीन की बात करने से भी डर रहे हैं- कांग्रेस
बिहार में सत्तापक्ष जेडीयू-बीजेपी के सामने सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि राज्य में रोज़ी-रोटी कमाने का अवसर नहीं मिल पाने से निराश श्रमिक फिर बाहर जाने लगे हैं. नीतीश सरकार ने राज्य में ही मज़दूरों को काम-धंधा उपलब्ध कराने का जो आश्वासन दिया था, वह पूरा होता हुआ नहीं दिख रहा.
इसलिए प्रति परिवार पाँच किलो मुफ़्त अनाज वाली सरकारी मदद श्रमिकों का राज्य से पलायन नहीं रोक पा रही है. वैसे, आगामी पर्व-त्योहारों को देखते हुए जो श्रमिक इस कोरोना काल में बिहार से बाहर नहीं जा कर यहीं रोजीरोटी के जुगाड़ में लग जाएँगे, उन पर जेडीयू-बीजेपी की ही नहीं, राष्ट्रीय जनता दल की भी नज़र लगी रहेगी.
हालाँकि जैसे-जैसे चुनाव की तारीख़ें नज़दीक आती जाएँगी, वैसे-वैसे जातीय समीकरण बिठाने से लेकर धार्मिक ध्रुवीकरण कराने वाले तमाम सियासी तत्व सक्रिय हो कर ज़मीनी समस्याओं को हाशिये पर पहुँचाने लगेंगे.
तब सिर्फ कुछ किलो मुफ़्त अनाज से काम नहीं चलने वाला. मोटे-मोटे प्रलोभन लेकर सभी प्रमुख उम्मीदवार चुनावी बाज़ार में उतरेंगे ही. और जनता उम्मीद के आसरे इन तमाम सवालों का जवाब खोजने के लिए नेताओं का भाषण का वेसब्री से इंतज़ार करती रहेगी.. लेकिन इतना तो तय है कि इस कोरोना ने सरकार और सिस्टम को कटघरे में ज़रूर खड़ा कर दिया है. इतना हीं नहीं सभी सरकार के दावों और योजनाओं की पोल खोल कर रख दी है जिसका डंका पूरे हिंदुस्तान में पीटा जाता था. अंत में यही सच निकल कर सामने आता है कर इसी को कहते हैं आपदा को अवसर में बदलना
जिसका जिक्र कोरोना के बाद हर बार प्रधानमंत्री अपने संबोधन में करते आए हैं…. क्या इसमें कामयाब हो पाएंगे मोदी इसके लिए महज इंतज़ार करना होगा जब बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आएंगे.
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